=
तुम परेशां हो की मैं नाराज़ हूँ तुमसे
कह न पाऊँ कि यह नाराज़गी है ख़ुदसे
तुमसे मिलते हि खो जाता हूँ लब लबाब ख्यालों में
हो जाता हूँ बेबस छा जाती है दीवानगी रग रग में
देखता रहता हूँ उन होठों को बेख़बर ख़ामोशी से
गूंजते रहते हैं अल्फ़ाज़ कानों में मौसिएकी बन के
तुम जो बयां करते हो सुनता हूँ बहुत ही ग़ौर से
समझ पाता नहीं नज़रें जो खो गयी नज़रों में
अंदाज़े बयां कि रवानी पर हर पल बेसब्री से मचलता है
तुम पास रहो कुछ भी कहो दिल चीख़ चीख़ कर कहता है
ख़याले पुलाव टूटा जो बुलंद आवाज़ से मुझसे कुछ पूछा
हड़बड़ा कर झनझनाहट से बदहवासी में कर दिया सिर नीचा
तुम परेशां हो गए कि मैं नाराज़ हूँ तुमसे
खुद को कोस्ता हूँ आखिर कहूँ क्या तुमसे
यह क़िस्सा सिर्फ तुम्हारा ही नहीं है शमीम
मजनू फरहाद राँझा की कहानिएं पढ़ लो गर हो न यक़ीन
Who are you visualising in this heart-rending piece?
LikeLike
My one and only love!
LikeLike
वाह वाह। शमीम भाई। दिल की आवाज़ कुछ शब्दोमे।
LikeLike
Shukriya. Khushi hai ki aapke dil ne sun li
LikeLike
Shameem Bhai, Your thoughts and feelings for your lifelong love are Genuine and Beautiful. They are best expressed in this poem. It is your anchor. Keep writing.
Best regards.
jai
LikeLike
Thank you Jai.
Your encouragement means a lot to me. May God bless you and the family with fine health, happiness and prosperity.
Shameem
LikeLike